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शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

कमजोर वन (सुरक्षा) प्रबन्धन की मार पड़ी इंदिरा आवास आवंटी पर

इंदिरा आवास आवंटी पर वन मुकदमा का घटनोत्तर जिक्र मैंने पूर्व के लेख में किया, लेकिन अब प्रश्न उठता है कि इस तरह की घटनाऐं आज भी पूरे भारतवर्ष में घट रहीं हैं जिसकी पृष्टभूमि की जाँच होनी चाहिए एवं सुधार के लिए आगे की कारवाई भी अपेक्षित है; जो नहीं हो रहा है। मैं तोपचाँची (गोमो, धनबाद) की पूर्व वर्णित घटना का बिन्दुवार विभागीय कार्य पद्धति का मूल्यांकन करने की कोशिश कर रहा हूँ कि आखिर इस इंदिरा आवास आवंटी पर वन मुकदमा की नौबत क्यों आई:-
Ø ऐसे दर्ज हुआ वन अपराध का अपराध प्रतिवेदन: अपराध प्रतिवेदन प्रस्तुती पर जब मैंने छानबिन किया था तो पाया कि इस मुकदमा को दर्ज करने के पीछे विभागीय कार्य पद्धति हीं कहीं न कहीं जिम्मेवार थी। हुआ ये था कि किसी व्यक्ति ने जिसकी आरोपी से अनबन रहती थी, उसने एक शिकायत वाद वन प्रमंडल पदाधिकारी, धनबाद के नाम से डाला कि प्रभारी वनरक्षी अनुचित लाभ लेकर जंगल की जमीन पर पक्का मकान बनवा रहा है। जबकि वस्तुस्थिति ये थी कि कार्य क्षेत्र बड़ा होने की वजह से वनरक्षी को मालुम हीं नहीं था कि वहाँ पर मकान बन रहा है। उक्त शिकायत वाद पर वन प्रमंडल पदाधिकारी ने एक प्रशिक्षु भारतीय वन सेवा के पदाधिकारी को जाँच का जिम्मा दे दिया। प्रशिक्षु पदाधिकारी ने अनुभव की कमी के चलते वनरक्षी को को शंका की दृष्टि से देखा एवं जाँच के दरमियान साक्ष्य जमा करने के लिए गाँव में घुम-घुमकर व्यक्ति खोजना चाहा जबकि आरोपी का बयान दर्ज करने को तैयार नहीं हुए। वन पदाधिकारी के इस क्रिया-कलाप से वनरक्षी भयभीत हो गया एवं अपने को फंसा हुआ समझ कर बचाव के लिए एक पीछे के तिथि से आरोपी पर अपराध प्रतिवेदन काट दिया। जब जाँच पदाधिकारी दूसरे दिन नीचले स्तर पर कारवाई की जानकारी माँगी तो वनरक्षी ने अपराध प्रतिवेदन समर्पित करने की बात प्रकाश में लाया और इस खींचतान एवं फँसने-फँसाने के चक्कर में एक गरीब इंदिरा आवास आवंटी पर वन मुकदमा दर्ज हो गया।
Ø ऐसे बच गये प्रखंड विकास पदाधिकारी/कर्मचारी: दर्ज अपराध का जब मैने जाँच शुरू किया तो ये बात प्रकाश मे आयी कि इसके लिए प्रखंड विकास पदाधिकारी एवं कर्मचारी कम दोषी नहीं थे क्योंकि इंदिरा आवास के आवंटन की राशि उनके द्वारा दी गयी थी, जबकि प्रखंड कर्मचारी ने जमीन की मापी कर आरोपी को उसी जमीन पर मकान बनाने की अनुमति दी थी। मामला जब प्रकाश में आया तो कर्मचारी पूर्व की कारवाई से मुकर गया। मैंने जब अपने अनुसंधान पर उन्हें सह अभियुक्त बनाने की तैयारी पूरी कर ली तभी मुझे नियंत्रण पदाधिकारी से विचार-विमर्श हेतु बुलाहट आ गई एवं मुझे ऐसा करने से रोक दिया गया और कहा गया कि जो सीधे तौर पर दोषी है, उसी पर कारवाई करें। मैं इस तरह के निर्देश से अचम्भित था। मैं जब इस तरह के निर्देश के तह में गया तो पता चला कि प्रखंड विकास पदाधिकारी को अपने ऊपर कारवाई की भनक लग गयी थी एवं उन्होने नियंत्रण पदाधिकारी के पास पैरवी की थी कि मेरी एवं अन्य कर्मचारियों की नौकरी चली जायेगी। इस पिछ्ले दरवाजे की कारगुजारी कि जानकारी मुझे नहीं थी। इस तरह से अपना पल्ला झाड़ एवं नौकरी की दुहाई देकर सह आरोपी बच गये।
Ø यहीं पर वन सुरक्षा समिति के अधिकार काम आते: धनबाद वन प्रमंडल में उस वक्त वन सुरक्षा समिति शैशव काल में कहीं-कहीं था। वन सुरक्षा समिति की अहमियत नहीं थी। वर्तमान परिपेक्ष में देखा जाय तो आज 2007 के वन सुरक्षा समिति के अधिकार क्षेत्र में वनभूमि पर वन अपराध घटित होने पर प्रारम्भिक जाँचोपर्यंत प्राथमिकी दर्ज कराने का अधिकार वन सुरक्षा समिति के पास है। अगर ये प्रावधान उस समय होते एवं सही ढ़ंग से लागू होते तो ये मुकदमा दर्ज हीं नहीं होता क्योंकि वन सुरक्षा समिति उस घटना को होने से रोक देती अथवा होता यूँ कि वन सुरक्षा समिति, जो उसी गाँव में 24 घंटे मौजूद रहती है, वह् स्वंय पहल कर बीच का रास्ता निकालती, तब वनरक्षी उक्त घटना का अपराध प्रतिवेदन सीधे मुझे समर्पित नहीं कर सकता।
अतः मैं कह सकता हूँ कि ग्रामीणों पर दोहरी मार पड़ रही है, एक तो वे सुरक्षित वन जिसपर उनका हक होना चाहिए था, उससे वंचित हैं, दूसरी ओर किसी छोटी सी भूल के लिए उन्हें भारी दण्ड का भागी भी बनना पड़ रहा है। आज भी वन सुरक्षा समिति के उक्त अधिकार को ग्रामीणों की जानकारी एवं अशिक्षा के वजह से समाप्त करने का षडयंत्र हो रहा है क्योंकि इससे वन विभाग का एकाधिकार जो समाप्त हो जायेगा। कोई भी आज के परिपेक्ष में जनभागिदारी को सच्चे मन से अंगीकार करना नहीं चाह रहा है, जो झारखण्ड के लिए दुःखद है।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

पैसा न होतई तो कर्जा ले लेबई हुज़ुर:सन्दर्भ इंदिरा आवास आवंटी

मैं गवाही के उपरांत कोर्ट पदाधिकारी से उपस्थिति सम्बंधी प्रमाण-पत्र प्राप्त करने हेतु कोर्ट कक्ष के वकील बेंच में बैठा इंतजार कर रहा था। भोजन अवकास के उपरांत पुनः कोर्ट की कार्यवाही शुरू हुई। आरोपी भी अगली तिथि लेने के लिए कोर्ट कक्ष में हीं एक कोने में खड़ा था। माननीय न्यायिक दंडाधिकारी उसे देखते हुए बोले,तुमको कौन तिथि चाहिए? आरोपी निश्चल भाव से बोला,हुज़ुर, अबर लम्बा समय दे दिजिए, लड़की की शादी अगले हप्ता में है। न्यायिक दण्डाधिकारी हमारी ओर देख रहे थे, मैं भी निशब्द उनकी ओर देख रहा था। वे चिंतित एवं व्यथित थे। उन्होने आरोपी को कहा,तुम्हीं बताओ किस तिथि को अगली सुनवाई रखें। आरोपी बोला,अगला महीना के पहली के हुज़ुर दे दिया जाता तो सहुलियत होता,तत्पश्चात दण्डाधिकारी महोदय ने अपने पेशकार को उक़्त कार्यवाई करने का निर्देश दिया एवं उसकी ओर मुखातिब होकर बोले,सुनो, तुम कौन वकील के चक्कर में पड़े हो जो तुम्हें 1400 रुपये का केस दस साल से लड़ा रहा है। ये तो कब का खत्म हो जाना चाहिए था, ऐसा करो! तुम अगली तिथि को विना वकील के आना और अपने पास दो-तीन सौ रूपये रखना, समझे न भूलना नहीं, समझे न मैं क्या कह रहा हूँ। फिर मेरी ओर मुखातिब होकर बोले न्युनतम फाईन कितना है? मैं कहा,सर, 500 रूपये। इसपर कोर्ट कक्ष से बाहर जा रहे आरोपी को रोकते हुए कहा,सुनों, पाँच सौ रूपया लेकर आना, फिर थोड़े सकते एवं चिंतित मुद्रा में बोले,सुनों, जुगाड़ कर लोगे न! आरोपी किंकर्तव्यविमुढ़ था, वहीं न्यायिक दण्डाधिकारी आशंकित थे कि ये पैसा का इंतजाम कर पायेगा या नहीं। आरोपी को समझ में नहीं आ रहा था कि हुज़ुर आखिर ये सारी बातें उससे सीधी तौर पर न्यायिक कुर्सी पर बैठकर क्यों बोल रहें है। उसने चिंतित मन से सिर हिला दिया।

दण्डाधिकारी महोदय ने मुझे उसे मदद करने का संकेत किया, जिसे मैं समझ गया और कोर्ट कक्ष से बाहर आकर उसे समझाया। सुनों तुम वकील के विना अगली तिथि पर कोर्ट में उपस्थित हो जाना और पाँच सौ रूपया लेते आना। जो आरोप तुम पर है उसके लिए दण्ड के रूप में कम से कम पाँच सौ रूपये जुर्माना या दो साल कैद का प्रावधान है। दण्डाधिकारी महोदय कोमल हृदय के इंसान हैं। अतः तुम्हे पाँच सौ रूपया जुर्माना लेकर छोड़ देंगे और तुम्हारा केस उसी दिन समाप्त हो जायेगा। तुम किसी दलाल के चक्कर में मत आना। इतना सुनना था कि उसका चेहरा चमक गया और खुशी मन से बोला,पैसा न होतई तो कर्जा ले लेबई हुज़ुर, ई केस कसहूँ खत्म हो जाय, दस साल से पेराई गेलेई हे। (पैसा नहीं होगा तो कर्ज ले लेंगें, ये केस किसी तरह से खत्म हो जाय, दस वर्ष से परेशान हैं) तत्पश्चात अभिवादन कर वह विदा हुआ।

............क्रमशः

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

इन्दिरा आवास आवंटी पर मुकदमा ठोक दिया, क्या यही हमारी कार्यपद्धति है?

फरवरी 2007 की नियत तिथि को मैं धनबाद न्यायालय के एक कोर्ट के विट्नेस बॉक्स में खड़ा था। बचाव पक्ष के अधिवक्ता हमसे सवाल पूछा, आप इस केस के अनुसंधान पदाधिकारी हैं? मैंने कहा, जी हाँ, क्या आप जाँच के दौरान घटना स्थल पर गये थे? मैंने कहा, जी हाँ, आप वहाँ पर क्या पाया? मैंने कहा, मैंने एक अर्धनिर्मित पक्का मकान बना हुआ पाया जो प्लिंथ लेबल तक बना था, जिसका पार्ट भाग वन भूमि पर निर्मित था, अतः वनरक्षी का अपराध प्रतिवेदन सही पाया, इसके बाद अधिवक्ता महोदय ने सवाल किया, क्या मालूम है कि आरोपी अनुसूचित जन-जाति का है? मेरा जबाब था, जी हाँ, ये जानकारी अपराध अनुसन्धान के दौरान मेरे समक्ष आयी, अधिवक्ता महोदय ने आगे कहा, आप ने अनुसन्धान में ये भी पाया कि आरोपी सरकार की योजना अंतर्गत तोंपचाँची प्रखण्ड द्वारा उपलब्ध कराई गयी इन्दिरा आवास के अंतर्गत आवंटित राशि से मकान बना रहा था, जिसे रोक दिया गया था, मैंने कहा, ये सत्य है, अधिवक्ता ने आगे कहा, आपको पता है कि आरोपी अब उसी मकान में रह रहा है, मैंने कहा, मुझे नहीं मालूम क्योंकि मेरा स्थानांतरण वर्ष 1999 में हीं यहाँ से हो गया था। तत्पश्चात मेरे गवाही को कलमबद्ध किया गया। 

10 वर्ष की सजा: मैनें उक्त घटना की सजीव चित्रण इस लिए किया क्योंकि मुझे खुद नहीं पता था कि ये घटना दस वर्ष पुरानी थी, यानि वर्ष 1997 की थी। मैने जब केस रिकॉड का कोर्ट कक्ष में अध्ययन किया तो अपने जाँच प्रतिवेदन पर हीं अचम्भित था, क्योंकि मुकदमा मात्र 1400 रुपये के वनक्षति का तथा इन्दिरा आवास निर्माण का था एवं इसका स्पष्ट जिक्र मैंने अपने अनुसन्धान प्रतिवेदन में कर रखा था। मुझे आश्चर्य इस पर भी हो रहा था कि इस गरीब ने तो दस वर्ष सालों तक कोर्ट का चक्कर लगया वो भी एक छोटी भूल के लिए, जिसमें आरोपी की आंशिक गलती थी। गलती तो प्रखंड कार्यालय ने भी की थी, लेकिन खामियाजा इसे भुगतना पड़ा। उक्त  विचारों का आदान-प्रदान माननीय न्यायिक दण्डाधिकारी के कार्यालय कक्ष में भोजन अवकाश के दौरान हो रही थी। माननीय न्यायिक पदाधिकारी काफी गम्भीर तथा द्रवित थे। वे जानना चहते थे कि आरोपी तो अनपढ़ एवं गरीबी रेखा के नीचे का नागरिक है फिर इसने ऐसा कार्य क्यों किया? मै चूकि जाँच पदाधिकारी था अतः न्यायिक प्रक्रिया से अलग हटकर मानवता की ख़ातिर अपराध की अतीत जानने को उत्सुक थे। पूरी घटना फ्लैस-बैक की तरह मुझे स्मारित हो गयी। मैंने कहा, सरकारी कार्य व्यवस्था का बली ये गरीब चढ़ गया है, मुकदमा तो प्रखण्ड विकाश पदाधिकारी पर भी होनी चाहिए थी जिन्होंने घटना स्थल का निरीक्षण (स्थल चयन) कर निर्माण की अनुमति दी। जिस जगह यह वन भूमि में करीब पाँच फीट घुसा है, उसी के बगल में आरोपी इस भूमिहीन परिवार की गैर मजरुआ जमीन का आवंटन सरकार (प्रखण्ड) के द्वारा किया गया है। नाप-जोख में गड़बड़ी की वजह से भूलवश जंगल की जमीन में घुस गया। गलती तो मेरे वनरक्षी की भी है, जिसने सही समय पर जाकर उसे रोका नहीं था। जमीन की बनावट भी ऐसी है कि कहीं पिलर नज़र नहीं आता एवं वनभूमि, रैयत तथा गैर मजरुआ भूमि में सिर्फ आँखो से देखकर अंतर करना मुश्किल है। घटना जब प्रकाश में आयी तो मैंने वनरक्षी से तहकिकात किया तो उसने तुरंत अपराध प्रतिवेदन थमा दिया। मैं घटना की जाँच के लिए गया और घटना स्थल पर हीं पूछा कि आपने इन्दिरा आवास आवंटी पर मुकदमा ठोक दिया, क़्या यही हमारी कार्यपद्धति है? जो व्यक्ति अपना घर अपने पैसे से नहीं बना सकता, शरीर पर ढ़ंग से कपड़ा नहीं है, वह अब मुकदमा लड़ेगा, मै विफ़र था लेकिन न्यायिक प्रक्रिया से बँधा था और मुझे वनरक्षी के अपराध प्रतिवेदन को स्वीकार करना पड़ा। उस गरीब की दस वर्षो की मांसिक एवं आर्थिक पीड़ा को मैं और न्यायिक पदाधिकारी सिर्फ महसूस करने की कोशिश कर रहे थे कि इस एक छोटी सी भूल के लिए कितनी बड़ी सजा मिल गयी।

क्रमशः..................

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