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गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

क्या बन्धुआ है वनों पर ग्रामीणों का हक?

राज्य के कुल 23605.47 वर्ग कि0मी0 वन क्षेत्र का 81.27% {19184.78 वर्ग कि0मी0} भाग सुरक्षित वन हैं, जो पूरे भौगोलिक क्षेत्रफल का करीब एक चौथाई तथा करीब 13000 गाँव में अवस्थित है। सुरक्षित वनों से ग्रामीणों के विशेष सम्बन्ध का प्रावधान भारतीय वन अधिनियम की धारा-30(बी) में इस प्रकार हैः-
* किसी भी सुरक्षित वन के पूरे क्षेत्र को एक साथ बन्द (प्रतिबन्ध) नहीं किया जा सकता है।
* सुरक्षित वन के न्युनतम 1/30 भाग को बन्द (प्रतिबन्ध) से प्रत्येक वर्ष बाहर रखना होगा।

* प्रतिबन्ध से बाहर रखे गये क्षेत्र में मात्र निजी लोग हीं अपने अधिकार का उपयोग कर सकेंगे।
उपरोक्त कानूनी प्रावधानों के बाद भी क्या ग्रामीणों को अपना हक मिला? समीक्षोपर्यन्त पाया गया कि राज्य सरकारों ने राजस्व के लिए व्यावसायिक दोहन किया, जिसका कोई कानूनी प्रावधान नहीं है। सुरक्षित वनों में केवल निजी लोगों द्वारा अधिकार प्रयोग का हीं प्रावधान हैं।
घटनोत्तर समीक्षोपर्यन्त ये तथ्य सामने आया है कि भारतीय वन अधिनियम 1927 के अंतर्गत दो तरह के वन अधिसूचित किये गये। स्वतंत्रता के पूर्व के बने सुरक्षित वन जिसमें प्रायः पहले स्थानीय व्यक्तियों के हक सुनिश्चित कर हीं अधिसूचना जारी की गयी थी। दुसरे तरह के वन जो जमींदारी उन्मूलन के साथ सरकार में निहित हो गये और भूमि सुधार अधिनियम 1950 के अंतर्गत वन विभाग को सौंप दिये गये। जमींदारी उन्मूलन के साथ हीं उन्हें नये बने “बिहार निजी वन अधिनियम 1946, 1947 एवं 1948” के अंतर्गत “निजी सुरक्षित वन” घोषित किया। फिर 1952 के बाद भूमि सुधार अधिनियम के अंतर्गत इन वन भूमि को लाकर भारतीय वन अधिनियम 1927 के अंतर्गत समय-समय पर सुरक्षित वन घोषित किया।
देश की आजादी के बाद सरकार वनों का वैज्ञानिक प्रबन्धन के लिए अपने नियंत्रण में लेकर सरकारी व्यवस्था कायम की। इसके फलस्वरूप अनेक वन प्रमन्डल सृजित किये गये और आरक्षित वनों की तरह सुरक्षित वनों के प्रमंडलवार कार्य नियोजना तैयार की गयी एवं वार्षिक कूपों का निर्माण कर सरकार ने राजस्व प्राप्ति के लिये व्यवसायिक कटाई की पद्धति लागू की गयी। वर्ष 1980 तक कूपों में कटाई अधिकांशतः ठीकेदारों के साथ बन्दोबस्ती के आधार पर की जाती रही। बाद में ठीकेदारी प्रथा समाप्त कर सरकारी व्यवस्था के तहत वन विभाग का राजकीय व्यापार प्रमंडल ने उक्त जिम्मेवारी ली। वर्ष 1990 के बाद से वनों में वृक्षों की कटाई बन्द है तथा इससे सरकार को राजस्व की प्रप्ति भी नगन्य है।
आजादी पूर्व इन वनों का नियंत्रण जमींदारों के पास था जिन्होंने अपनी शक्ति एवं इच्छा के अनुसार व्यवस्था लागू कर ठेकेदारों से वनों की कटाई की और अपनी आमदनी बढ़ाई। इस दौरान भारतीय वन अधिनियम-1927 की धारा-30(बी) का चीरहरण हुआ क्योंकि यहाँ प्रावधान हीं लागू नहीं किया गया। आजादी के बाद भी ठीकेदारी प्रथा लागू रही एवं पूर्व व्यवस्था कायम रखी गयी तथा प्राप्त राशि को अब सरकारी खाते में जमा किया गया। बाद में कार्य नियोजना में बड़े पैमाने पर कटाई के प्रचलन को सरकारी व्यवस्था के तहत समाहित कर दिया गया।
कार्य नियोजना में सरकार के राजस्व हेतू व्यवसायिक कटाई को मूल आधार दिया गया तथा ग्रामीणों को अंश जगह दी गयी। जब 1990 में वनों की कटाई रोक दी गयी तो वन अधिनियम-1927 की धारा-30(बी) के अधीन ग्रामीणों के अधिकार भी शून्य हो गये एवं उक्त अधिनियम के पूर्णतः विलोपित होने जैसी स्थिति कायम हो गयी है।
झारखण्ड राज्य के गठन के उपरांत संयुक्त ग्राम वन प्रबंधन समिति का गठन हुआ जिसके तहत जंगल से प्राप्त कुल राजस्व का 90% ग्रामीणों को संयुक्त रूप से देने का निर्णय लिया है। परन्तु झारखण्ड राज्य के एक भी सुरक्षित वन के मामले में इस निर्णय का अभी तक कार्यान्यवन नहीं हुआ है। उक्त परिस्थिति कार्य नियोजना के तहत व्यवसायिक कटाई की प्रचलित धारणा को हीं संयुक्त वन प्रबंधन के नीति में अंगीकार करने की वजह से हुई और आज की तिथि तक ग्रामीणों को वनों पर हक बंधुआ बना हुआ है। इससे कब मुक्ति मिलेगी अनिश्चित है।
झारखण्ड राज्य की अनुसुचित जनजाति एवं अन्य ग्रामीणों के सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक उत्थान के लिए पूरे वन विभाग को वर्षो से ठगे एवं छले जा रहे ग्रमीणों के बंधुआ रखे हक को, भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा-30(बी) के प्रावधानों के मूल भावना को लागू कर हीं मुक्ति दी जा सकती है। इसमें वरीय वन पदाधिकारियों की इच्छा शक्ति के साथ पूरे विभाग को समग्र रूप से अग्रसर होना होगा।

3 टिप्‍पणियां:

  1. सरकार कथनी और करनी में बहुत अंतर होने से झारखंड की स्थिति सुधरनेवाली नहीं ।

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  2. आपका ब्लॉग अत्यंत सुन्दर और जानकारी से परिपूर्ण है , जब भी समय मिलेगा अवलोकन करता रहूँगा , शुभकामनाएं !

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